जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे
क्या ख़ूब क़यामत का है गोया कोई दिन और
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हो गई है ग़ैर की शीरीं-बयानी कारगर
गर ख़ामुशी से फ़ाएदा इख़्फ़ा-ए-हाल है
अपना नहीं ये शेवा कि आराम से बैठें
ने तीर कमाँ में है न सय्याद कमीं में
रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
है वस्ल हिज्र आलम-ए-तमकीन-ओ-ज़ब्त में
कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से
हुई जिन से तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
नक़्श-ए-नाज़-ए-बुत-ए-तन्नाज़ ब-आग़ोश-ए-रक़ीब
लिखते रहे जुनूँ की हिकायात-ए-ख़ूँ-चकाँ
लेता हूँ मकतब-ए-ग़म-ए-दिल में सबक़ हुनूज़