जम्अ करते हो क्यूँ रक़ीबों को
इक तमाशा हुआ गिला न हुआ
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हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या
हुज़ूर-ए-शाह में अहल-ए-सुख़न की आज़माइश है
'ग़ालिब' अपना ये अक़ीदा है ब-क़ौल-ए-'नासिख़'
कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले
मैं ना-मुराद दिल की तसल्ली को क्या करूँ
पीनस में गुज़रते हैं जो कूचे से वह मेरे
'ग़ालिब' न कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़
तुझ से तो कुछ कलाम नहीं लेकिन ऐ नदीम
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त