जब तक कि न देखा था क़द-ए-यार का आलम
मैं मो'तक़िद-ए-फ़ित्ना-ए-महशर न हुआ था
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दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
माना-ए-दश्त-नवर्दी कोई तदबीर नहीं
जादा-ए-रह ख़ुर को वक़्त-ए-शाम है तार-ए-शुआअ'
मत मर्दुमक-ए-दीदा में समझो ये निगाहें
सरापा रेहन-इश्क़-ओ-ना-गुज़ीर-उल्फ़त-हस्ती
लब-ए-ईसा की जुम्बिश करती है गहवारा-जम्बानी
काफ़ी है निशानी तिरा छल्ले का न देना
मिसाल ये मिरी कोशिश की है कि मुर्ग़-ए-असीर
शब कि बर्क़-ए-सोज़-ए-दिल से ज़हरा-ए-अब्र आब था
देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उस ने कहा
तू ने क़सम मय-कशी की खाई है 'ग़ालिब'
बैठा है जो कि साया-ए-दीवार-ए-यार में