जानता हूँ सवाब-ए-ताअत-ओ-ज़ोहद
पर तबीअत इधर नहीं आती
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या रब हमें तो ख़्वाब में भी मत दिखाइयो
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
है आदमी बजाए ख़ुद इक महशर-ए-ख़याल
सद जल्वा रू-ब-रू है जो मिज़्गाँ उठाइए
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
मय वो क्यूँ बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में या रब
लाज़िम था कि देखो मिरा रस्ता कोई दिन और
हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई
बोसा देते नहीं और दिल पे है हर लहज़ा निगाह