जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार
ऐ काश जानता न तिरे रह-गुज़र को मैं
Wasi Shah
Anwar Masood
Jaun Eliya
Allama Iqbal
Javed Akhtar
Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
Ahmad Faraz
Mir Taqi Mir
Mohsin Naqvi
Parveen Shakir
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(1788) Peoples Rate This
रहम कर ज़ालिम कि क्या बूद-ए-चराग़-ए-कुश्ता है
तिरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना
दिया है दिल अगर उस को बशर है क्या कहिए
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
वा-हसरता कि यार ने खींचा सितम से हाथ
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है
आज वाँ तेग़ ओ कफ़न बाँधे हुए जाता हूँ मैं
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
'ग़ालिब' तिरा अहवाल सुना देंगे हम उन को
किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो
वो चीज़ जिस के लिए हम को हो बहिश्त अज़ीज़
क़फ़स में हूँ गर अच्छा भी न जानें मेरे शेवन को