जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता दुआ क्या है
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ए'तिबार-ए-इश्क़ की ख़ाना-ख़राबी देखना
रहे न जान तो क़ातिल को ख़ूँ-बहा दीजे
आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
वारस्ता उस से हैं कि मोहब्बत ही क्यूँ न हो
जिस जा नसीम शाना-कश-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार है
ज़ुल्मत-कदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है
कार-गाह-ए-हस्ती में लाला दाग़-सामाँ है
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
रात पी ज़मज़म पे मय और सुब्ह-दम
हैं आज क्यूँ ज़लील कि कल तक न थी पसंद
कम नहीं जल्वागरी में, तिरे कूचे से बहिश्त