इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
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किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
सद जल्वा रू-ब-रू है जो मिज़्गाँ उठाइए
तू ने क़सम मय-कशी की खाई है 'ग़ालिब'
हुजूम-ए-नाला हैरत आजिज़-ए-अर्ज़-ए-यक-अफ़्ग़ँ है
ज़ोफ़ में तअना-ए-अग़्यार का शिकवा क्या है
क़यामत है कि होवे मुद्दई का हम-सफ़र 'ग़ालिब'
देखिए लाती है उस शोख़ की नख़वत क्या रंग
सफ़ा-ए-हैरत-ए-आईना है सामान-ए-ज़ंग आख़िर
बे-इश्क़ उम्र कट नहीं सकती है और याँ
पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है
ढाँपा कफ़न ने दाग़-ए-उयूब-ए-बरहनगी