इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब'
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने
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मय वो क्यूँ बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में या रब
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
कम नहीं जल्वागरी में, तिरे कूचे से बहिश्त
'असद' हम वो जुनूँ-जौलाँ गदा-ए-बे-सर-ओ-पा हैं
कहते हैं जीते हैं उम्मीद पे लोग
है कहाँ तमन्ना का दूसरा क़दम या रब
हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत 'ग़ालिब'
दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जाँ-सिताँ नावक-ए-नाज़ बे-पनाह
मुँद गईं खोलते ही खोलते आँखें 'ग़ालिब'
हाँ वो नहीं ख़ुदा-परस्त जाओ वो बेवफ़ा सही
क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब
घर हमारा जो न रोते भी तो वीराँ होता