इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
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रहमत अगर क़ुबूल करे क्या बईद है
था ज़िंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ
न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही
पए-नज़्र-ए-करम तोहफ़ा है शर्म-ए-ना-रसाई का
अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो
पा-ब-दामन हो रहा हूँ बस-कि मैं सहरा-नवर्द
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
अल्लाह रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी कि बाद-ए-मर्ग
क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़
दहर में नक़्श-ए-वफ़ा वजह-ए-तसल्ली न हुआ
पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा