इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं
जी ख़ुश हुआ है राह को पुर-ख़ार देख कर
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क़तरा-ए-मय बस-कि हैरत से नफ़स-परवर हुआ
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन
हसद से दिल अगर अफ़्सुर्दा है गर्म-ए-तमाशा हो
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही
बे-दर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिए
हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत 'ग़ालिब'
कहूँ किस से मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला है
न होगा यक-बयाबाँ माँदगी से ज़ौक़ कम मेरा
हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार
जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद