हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर होते तक
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हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले
उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया किए
रौ में है रख़्श-ए-उम्र कहाँ देखिए थमे
मय वो क्यूँ बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में या रब
न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही
क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़
क्यूँ न ठहरें हदफ़-ए-नावक-ए-बे-दाद कि हम
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
आज वाँ तेग़ ओ कफ़न बाँधे हुए जाता हूँ मैं
हुजूम-ए-नाला हैरत आजिज़-ए-अर्ज़-ए-यक-अफ़्ग़ँ है
जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार
जी ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन