हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
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रात पी ज़मज़म पे मय और सुब्ह-दम
तिरे जवाहिर-ए-तरफ़-ए-कुलह को क्या देखें
कहते हुए साक़ी से हया आती है वर्ना
गई वो बात कि हो गुफ़्तुगू तो क्यूँकर हो
सितम-कश मस्लहत से हूँ कि ख़ूबाँ तुझ पे आशिक़ हैं
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही
दिल लगा कर लग गया उन को भी तन्हा बैठना
भागे थे हम बहुत सो उसी की सज़ा है ये
काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
मिसाल ये मिरी कोशिश की है कि मुर्ग़-ए-असीर
तंगी-ए-दिल का गिला क्या ये वो काफ़िर-दिल है
तुम अपने शिकवे की बातें न खोद खोद के पूछो