हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता
वगरना शहर में 'ग़ालिब' की आबरू क्या है
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करे है बादा तिरे लब से कस्ब-ए-रंग-ए-फ़रोग़
हुजूम-ए-ग़म से याँ तक सर-निगूनी मुझ को हासिल है
रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए
कहते हुए साक़ी से हया आती है वर्ना
मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
नशा-ए-रंग से है वाशुद-ए-गुल
इक ख़ूँ-चकाँ कफ़न में करोड़ों बनाओ हैं
तंगी-ए-दिल का गिला क्या ये वो काफ़िर-दिल है