होगा कोई ऐसा भी कि 'ग़ालिब' को न जाने
शाइर तो वो अच्छा है प बदनाम बहुत है
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सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
करने गए थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला
'ग़ालिब' तिरा अहवाल सुना देंगे हम उन को
आता है दाग़-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद
बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल
ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तिरा बयान 'ग़ालिब'
गुलशन को तिरी सोहबत अज़-बस-कि ख़ुश आई है
बे-इश्क़ उम्र कट नहीं सकती है और याँ
शबनम ब-गुल-ए-लाला न ख़ाली ज़-अदा है
ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब'
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
याद है शादी में भी हंगामा-ए-या-रब मुझे