हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या
न हो मरना तो जीने का मज़ा क्या
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काँटों की ज़बाँ सूख गई प्यास से या रब
लब-ए-ईसा की जुम्बिश करती है गहवारा-जम्बानी
न लेवे गर ख़स-ए-जौहर तरावत सब्ज़ा-ए-ख़त से
इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब'
गर तुझ को है यक़ीन-ए-इजाबत दुआ न माँग
'ग़ालिब' बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
तमाशा कि ऐ महव-ए-आईना-दारी
मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए
बात पर वाँ ज़बान कटती है
तिरे जवाहिर-ए-तरफ़-ए-कुलह को क्या देखें
बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल
हूँ गिरफ़्तार-ए-उल्फ़त-ए-सय्याद