हर-चंद हो मुशाहिदा-ए-हक़ की गुफ़्तुगू
बनती नहीं है बादा-ओ-साग़र कहे बग़ैर
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हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन
ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
घर जब बना लिया तिरे दर पर कहे बग़ैर
क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
सर पा-ए-ख़ुम पे चाहिए हंगाम-ए-बे-ख़ुदी
आता है दाग़-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद
जुनूँ की दस्त-गीरी किस से हो गर हो न उर्यानी
ब-नाला हासिल-ए-दिल-बस्तगी फ़राहम कर
काबे में जा रहा तो न दो ताना क्या कहें
हाँ ऐ फ़लक-ए-पीर जवाँ था अभी आरिफ़
हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे
गिला है शौक़ को दिल में भी तंगी-ए-जा का