हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है
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आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं
रश्क कहता है कि उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़
है कहाँ तमन्ना का दूसरा क़दम या रब
इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है
बार-हा देखी हैं उन की रंजिशें
दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या
दिखा के जुम्बिश-ए-लब ही तमाम कर हम को
लब-ए-ख़ुश्क दर-तिश्नगी-मुर्दगाँ का
ओहदे से मद्ह-ए-नाज़ के बाहर न आ सका
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
हद चाहिए सज़ा में उक़ूबत के वास्ते