हर बुल-हवस ने हुस्न-परस्ती शिआ'र की
अब आबरू-ए-शेवा-ए-अहल-ए-नज़र गई
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है बस-कि हर इक उन के इशारे में निशाँ और
इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
हवस-ए-गुल के तसव्वुर में भी खटका न रहा
नफ़स न अंजुमन-ए-आरज़ू से बाहर खींच
जब मय-कदा छुटा तो फिर अब क्या जगह की क़ैद
न लेवे गर ख़स-ए-जौहर तरावत सब्ज़ा-ए-ख़त से
मुँद गईं खोलते ही खोलते आँखें 'ग़ालिब'
'ग़ालिब' तिरा अहवाल सुना देंगे हम उन को
चाहिए अच्छों को जितना चाहिए
बू-ए-गुल नाला-ए-दिल दूद-ए-चराग़-ए-महफ़िल
की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं
रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमाँ