हाँ ऐ फ़लक-ए-पीर जवाँ था अभी आरिफ़
क्या तेरा बिगड़ता जो न मरता कोई दिन और
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देखिए पाते हैं उश्शाक़ बुतों से क्या फ़ैज़
महरम नहीं है तू ही नवा-हा-ए-राज़ का
पा-ब-दामन हो रहा हूँ बस-कि मैं सहरा-नवर्द
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
अर्ज़-ए-नाज़-ए-शोख़ी-ए-दंदाँ बराए-ख़ंदा है
बू-ए-गुल नाला-ए-दिल दूद-ए-चराग़-ए-महफ़िल
मरते हैं आरज़ू में मरने की
हुजूम-ए-नाला हैरत आजिज़-ए-अर्ज़-ए-यक-अफ़्ग़ँ है
हर-चंद हो मुशाहिदा-ए-हक़ की गुफ़्तुगू
छोड़ा न रश्क ने कि तिरे घर का नाम लूँ
बार-हा देखी हैं उन की रंजिशें
नज़्ज़ारे ने भी काम किया वाँ नक़ाब का