हाँ अहल-ए-तलब कौन सुने ताना-ए-ना-याफ़्त
देखा कि वो मिलता नहीं अपने ही को खो आए
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क़यामत है कि सुन लैला का दश्त-ए-क़ैस में आना
छोड़ा न रश्क ने कि तिरे घर का नाम लूँ
हासिल से हाथ धो बैठ ऐ आरज़ू-ख़िरामी
हम पर जफ़ा से तर्क-ए-वफ़ा का गुमाँ नहीं
बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं 'ग़ालिब'
अपना नहीं ये शेवा कि आराम से बैठें
अब जफ़ा से भी हैं महरूम हम अल्लाह अल्लाह
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
मय वो क्यूँ बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में या रब
दिल ही तो है सियासत-ए-दरबाँ से डर गया
लाग़र इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा दे मुझे