हमारे शेर हैं अब सिर्फ़ दिल-लगी के 'असद'
खुला कि फ़ाएदा अर्ज़-ए-हुनर में ख़ाक नहीं
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सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी
लाग़र इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा दे मुझे
वा-हसरता कि यार ने खींचा सितम से हाथ
वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा
दोनों जहान दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही
कार-गाह-ए-हस्ती में लाला दाग़-सामाँ है
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
न बंधे तिश्नगी-ए-ज़ौक़ के मज़मूँ 'ग़ालिब'
तुम अपने शिकवे की बातें न खोद खोद के पूछो
हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था
लताफ़त बे-कसाफ़त जल्वा पैदा कर नहीं सकती