हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और
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तिरे जवाहिर-ए-तरफ़-ए-कुलह को क्या देखें
कोई दिन गर ज़िंदगानी और है
ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
इस नज़ाकत का बुरा हो वो भले हैं तो क्या
ग़म-ए-हस्ती का 'असद' किस से हो जुज़ मर्ग इलाज
थी ख़बर गर्म कि 'ग़ालिब' के उड़ेंगे पुर्ज़े
शब कि बर्क़-ए-सोज़-ए-दिल से ज़हरा-ए-अब्र आब था
इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमाँ
जम्अ करते हो क्यूँ रक़ीबों को
किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो
मैं और सद-हज़ार नवा-ए-जिगर-ख़राश