हैं आज क्यूँ ज़लील कि कल तक न थी पसंद
गुस्ताख़ी-ए-फ़रिश्ता हमारी जनाब में
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ग़ाफ़िल ब-वहम-ए-नाज़ ख़ुद-आरा है वर्ना याँ
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
शिकवे के नाम से बे-मेहर ख़फ़ा होता है
ग़ुंचा-ए-ना-शगुफ़्ता को दूर से मत दिखा कि यूँ
एक जा हर्फ़-ए-वफ़ा लिखा था सो भी मिट गया
बाग़ पा कर ख़फ़क़ानी ये डराता है मुझे
तू ने क़सम मय-कशी की खाई है 'ग़ालिब'
आशिक़ हूँ प माशूक़-फ़रेबी है मिरा काम
गिरनी थी हम पे बर्क़-ए-तजल्ली न तूर पर
मंज़ूर थी ये शक्ल तजल्ली को नूर की
तिरे जवाहिर-ए-तरफ़-ए-कुलह को क्या देखें
ता हम को शिकायत की भी बाक़ी न रहे जा