है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती
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चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़-रौ के साथ
दोनों जहाँ दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
हाँ अहल-ए-तलब कौन सुने ताना-ए-ना-याफ़्त
नज़्ज़ारे ने भी काम किया वाँ नक़ाब का
अगले वक़्तों के हैं ये लोग इन्हें कुछ न कहो
हम पर जफ़ा से तर्क-ए-वफ़ा का गुमाँ नहीं
दिया है दिल अगर उस को बशर है क्या कहिए
आगही दाम-ए-शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए
हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
है सब्ज़ा-ज़ार हर दर-ओ-दीवार-ए-ग़म-कदा
की मिरे क़त्ल के बाद उस ने जफ़ा से तौबा
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं