है काएनात को हरकत तेरे ज़ौक़ से
परतव से आफ़्ताब के ज़र्रे में जान है
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मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
उस लब से मिल ही जाएगा बोसा कभी तो हाँ
लाज़िम था कि देखो मिरा रस्ता कोई दिन और
हम पर जफ़ा से तर्क-ए-वफ़ा का गुमाँ नहीं
बस-कि हूँ 'ग़ालिब' असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा
अजब नशात से जल्लाद के चले हैं हम आगे
फिर इस अंदाज़ से बहार आई
क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक़ीब
तेरे तौसन को सबा बाँधते हैं
दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुई