है आदमी बजाए ख़ुद इक महशर-ए-ख़याल
हम अंजुमन समझते हैं ख़ल्वत ही क्यूँ न हो
Javed Akhtar
Habib Jalib
Anwar Masood
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Allama Iqbal
Mir Taqi Mir
Jaun Eliya
Faiz Ahmad Faiz
Mohsin Naqvi
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तंगी-ए-दिल का गिला क्या ये वो काफ़िर-दिल है
पूछे है क्या वजूद ओ अदम अहल-ए-शौक़ का
सब्ज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं
दिल मिरा सोज़-ए-निहाँ से बे-मुहाबा जल गया
रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए
दिल-ए-हर-क़तरा है साज़-ए-अनल-बहर
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
'ग़ालिब' छुटी शराब पर अब भी कभी कभी
घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल
ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब'