हद चाहिए सज़ा में उक़ूबत के वास्ते
आख़िर गुनाहगार हूँ काफ़र नहीं हूँ मैं
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सीमाब-पुश्त गर्मी-ए-आईना दे है हम
जब तवक़्क़ो ही उठ गई 'ग़ालिब'
मैं ने कहा कि बज़्म-ए-नाज़ चाहिए ग़ैर से तिही
हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
गुलशन में बंदोबस्त ब-रंग-ए-दिगर है आज
नफ़स न अंजुमन-ए-आरज़ू से बाहर खींच
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल
बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी
लाग़र इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा दे मुझे
सुर्मा-ए-मुफ़्त-ए-नज़र हूँ मिरी क़ीमत ये है
मरते मरते देखने की आरज़ू रह जाएगी
हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार