गिरनी थी हम पे बर्क़-ए-तजल्ली न तूर पर
देते हैं बादा ज़र्फ़-ए-क़दह-ख़्वार देख कर
Mir Taqi Mir
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इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
तेरे तौसन को सबा बाँधते हैं
यक-ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बे-कार बाग़ का
तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले
भागे थे हम बहुत सो उसी की सज़ा है ये
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
सर-गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है
'ग़ालिब' न कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़
ज़बाँ पे बार-ए-ख़ुदाया ये किस का नाम आया
इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब'
धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव
रौंदी हुई है कौकबा-ए-शहरयार की