ग़लती-हा-ए-मज़ामीं मत पूछ
लोग नाले को रसा बाँधते हैं
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ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
माना-ए-दश्त-नवर्दी कोई तदबीर नहीं
आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं
न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही
हुजूम-ए-ग़म से याँ तक सर-निगूनी मुझ को हासिल है
की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं
ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़
बू-ए-गुल नाला-ए-दिल दूद-ए-चराग़-ए-महफ़िल
मय से ग़रज़ नशात है किस रू-सियाह को
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का