ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
हम रहें यूँ तिश्ना-लब पैग़ाम के
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सोहबत में ग़ैर की न पड़ी हो कहीं ये ख़ू
ज़ुल्मत-कदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है
क्यूँ न ठहरें हदफ़-ए-नावक-ए-बे-दाद कि हम
ता हम को शिकायत की भी बाक़ी न रहे जा
छोड़ूँगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना
महरम नहीं है तू ही नवा-हा-ए-राज़ का
ख़मोशियों में तमाशा अदा निकलती है
हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
गिरनी थी हम पे बर्क़-ए-तजल्ली न तूर पर
'ग़ालिब' छुटी शराब पर अब भी कभी कभी
वाइज़ न तुम पियो न किसी को पिला सको
नफ़स न अंजुमन-ए-आरज़ू से बाहर खींच