ग़ैर को या रब वो क्यूँकर मन-ए-गुस्ताख़ी करे
गर हया भी उस को आती है तो शरमा जाए है
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नशा-ए-रंग से है वाशुद-ए-गुल
क्यूँ न ठहरें हदफ़-ए-नावक-ए-बे-दाद कि हम
जिस जा नसीम शाना-कश-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार है
कब वो सुनता है कहानी मेरी
जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार
ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब'
मुझ तक कब उन की बज़्म में आता था दौर-ए-जाम
तिरे जवाहिर-ए-तरफ़-ए-कुलह को क्या देखें
लाग़र इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा दे मुझे
बना कर फ़क़ीरों का हम भेस 'ग़ालिब'
बैठा है जो कि साया-ए-दीवार-ए-यार में
कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया