'ग़ालिब' छुटी शराब पर अब भी कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र ओ शब-ए-माहताब में
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सर-गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है
हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार
या रब हमें तो ख़्वाब में भी मत दिखाइयो
आए है बेकसी-ए-इश्क़ पे रोना 'ग़ालिब'
आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
ता फिर न इंतिज़ार में नींद आए उम्र भर
अब जफ़ा से भी हैं महरूम हम अल्लाह अल्लाह
अफ़्सोस कि दंदाँ का किया रिज़्क़ फ़लक ने
ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब'
करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब'