गंजीना-ए-मअ'नी का तिलिस्म उस को समझिए
जो लफ़्ज़ कि 'ग़ालिब' मिरे अशआर में आवे
Habib Jalib
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लेता हूँ मकतब-ए-ग़म-ए-दिल में सबक़ हुनूज़
ता हम को शिकायत की भी बाक़ी न रहे जा
अदा-ए-ख़ास से 'ग़ालिब' हुआ है नुक्ता-सरा
दिल को नियाज़-ए-हसरत-ए-दीदार कर चुके
मिलती है ख़ू-ए-यार से नार इल्तिहाब में
जुनूँ तोहमत-कश-ए-तस्कीं न हो गर शादमानी की
बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं 'ग़ालिब'
आ कि मिरी जान को क़रार नहीं है
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल
सरापा रेहन-इश्क़-ओ-ना-गुज़ीर-उल्फ़त-हस्ती
जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार-ए-शौक़ देखा चाहिए
हुस्न-ए-मह गरचे ब-हंगाम-ए-कमाल अच्छा है