ए'तिबार-ए-इश्क़ की ख़ाना-ख़राबी देखना
ग़ैर ने की आह लेकिन वो ख़फ़ा मुझ पर हुआ
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मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
अज़-मेहर ता-ब-ज़र्रा दिल-ओ-दिल है आइना
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं
मैं ने कहा कि बज़्म-ए-नाज़ चाहिए ग़ैर से तिही
लूँ वाम बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता से यक-ख़्वाब-ए-खुश वले
फिर हुआ वक़्त कि हो बाल-कुशा मौज-ए-शराब
नज़र लगे न कहीं उन के दस्त-ओ-बाज़ू को
हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
क्या तंग हम सितम-ज़दगाँ का जहान है
है वस्ल हिज्र आलम-ए-तमकीन-ओ-ज़ब्त में