एक हंगामे पे मौक़ूफ़ है घर की रौनक़
नौहा-ए-ग़म ही सही नग़्मा-ए-शादी न सही
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हो गई है ग़ैर की शीरीं-बयानी कारगर
क्यूँ गर्दिश-ए-मुदाम से घबरा न जाए दिल
उस लब से मिल ही जाएगा बोसा कभी तो हाँ
रफ़्तार-ए-उम्र क़त-ए-रह-ए-इज़्तिराब है
काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
जान तुम पर निसार करता हूँ
'ग़ालिब' अपना ये अक़ीदा है ब-क़ौल-ए-'नासिख़'
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
ने तीर कमाँ में है न सय्याद कमीं में
लताफ़त बे-कसाफ़त जल्वा पैदा कर नहीं सकती