दोनों जहान दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
याँ आ पड़ी ये शर्म कि तकरार क्या करें
Allama Iqbal
Ahmad Faraz
Anwar Masood
Gulzar
Javed Akhtar
Faiz Ahmad Faiz
Mir Taqi Mir
Rahat Indori
Parveen Shakir
Wasi Shah
Habib Jalib
Mohsin Naqvi
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(1155) Peoples Rate This
ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
है किस क़दर हलाक-ए-फ़रेब-ए-वफ़ा-ए-गुल
था ज़िंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
मैं ने चाहा था कि अंदोह-ए-वफ़ा से छूटूँ
रौंदी हुई है कौकबा-ए-शहरयार की
ज़िंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे
वुसअत-ए-सई-ए-करम देख कि सर-ता-सर-ए-ख़ाक
शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामाँ निकला
मैं और बज़्म-ए-मय से यूँ तिश्ना-काम आऊँ
रहा गर कोई ता-क़यामत सलामत
एक हंगामे पे मौक़ूफ़ है घर की रौनक़