दिल-ए-हर-क़तरा है साज़-ए-अनल-बहर
हम उस के हैं हमारा पूछना क्या
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क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर
छोड़ूँगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
रहम कर ज़ालिम कि क्या बूद-ए-चराग़-ए-कुश्ता है
वो मिरी चीन-ए-जबीं से ग़म-ए-पिन्हाँ समझा
दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई
शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामाँ निकला
न गुल-ए-नग़्मा हूँ न पर्दा-ए-साज़
'ग़ालिब' बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ज़िद की है और बात मगर ख़ू बुरी नहीं
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
बला से हैं जो ये पेश-ए-नज़र दर-ओ-दीवार