दिल को नियाज़-ए-हसरत-ए-दीदार कर चुके
देखा तो हम में ताक़त-ए-दीदार भी नहीं
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बोसा कैसा यही ग़नीमत है
तंगी-ए-दिल का गिला क्या ये वो काफ़िर-दिल है
है बस-कि हर इक उन के इशारे में निशाँ और
बे-नियाज़ी हद से गुज़री बंदा-परवर कब तलक
तेरे तौसन को सबा बाँधते हैं
ख़ूब था पहले से होते जो हम अपने बद-ख़्वाह
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
'ग़ालिब' अपना ये अक़ीदा है ब-क़ौल-ए-'नासिख़'
धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव
कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं
कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया
क़यामत है कि सुन लैला का दश्त-ए-क़ैस में आना