दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ
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हैं आज क्यूँ ज़लील कि कल तक न थी पसंद
है तमाशा-गाह-ए-सोज़-ए-ताज़ा हर यक उज़्व-ए-तन
नज़र लगे न कहीं इन के दस्त-ओ-बाज़ू को
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
मोहब्बत थी चमन से लेकिन अब ये बे-दिमाग़ी है
ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो
वो आए घर में हमारे ख़ुदा की क़ुदरत है
मौत का एक दिन मुअय्यन है
ज़ोफ़ से गिर्या मुबद्दल ब-दम-ए-सर्द हुआ
जिस बज़्म में तू नाज़ से गुफ़्तार में आवे
लेता हूँ मकतब-ए-ग़म-ए-दिल में सबक़ हुनूज़