दैर नहीं हरम नहीं दर नहीं आस्ताँ नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम ग़ैर हमें उठाए क्यूँ
Rahat Indori
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करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना
कब वो सुनता है कहानी मेरी
तुम अपने शिकवे की बातें न खोद खोद के पूछो
न लेवे गर ख़स-ए-जौहर तरावत सब्ज़ा-ए-ख़त से
घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
बे-दर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिए
तंगी-ए-दिल का गिला क्या ये वो काफ़िर-दिल है
क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर
नश्शा-हा शादाब-ए-रंग ओ साज़-हा मस्त-ए-तरब
छोड़ूँगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना
सुनते हैं जो बहिश्त की तारीफ़ सब दुरुस्त
वादा आने का वफ़ा कीजे ये क्या अंदाज़ है