चाहिए अच्छों को जितना चाहिए
ये अगर चाहें तो फिर क्या चाहिए
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इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई
जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार
रोने से और इश्क़ में बे-बाक हो गए
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
हमारे शेर हैं अब सिर्फ़ दिल-लगी के 'असद'
हर इक मकान को है मकीं से शरफ़ 'असद'
लूँ वाम बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता से यक-ख़्वाब-ए-खुश वले
वारस्ता उस से हैं कि मोहब्बत ही क्यूँ न हो
था ज़िंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
चश्म-ए-ख़ूबाँ ख़ामुशी में भी नवा-पर्दाज़ है
है पर-ए-सरहद-ए-इदराक से अपना मसजूद