बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी
सो रहता है ब-अंदाज़-ए-चकीदन सर-निगूँ वो भी
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यही है आज़माना तो सताना किस को कहते हैं
नाला जुज़ हुस्न-ए-तलब ऐ सितम-ईजाद नहीं
पा-ब-दामन हो रहा हूँ बस-कि मैं सहरा-नवर्द
उग रहा है दर-ओ-दीवार पे सब्ज़ा 'ग़ालिब'
ज़िद की है और बात मगर ख़ू बुरी नहीं
आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
कब वो सुनता है कहानी मेरी
जब तवक़्क़ो ही उठ गई 'ग़ालिब'
रोने से और इश्क़ में बे-बाक हो गए
है तमाशा-गाह-ए-सोज़-ए-ताज़ा हर यक उज़्व-ए-तन
चाहते हैं ख़ूब-रूयों को 'असद'