बे-पर्दा सू-ए-वादी-ए-मजनूँ गुज़र न कर
हर ज़र्रा के नक़ाब में दिल बे-क़रार है
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क़फ़स में हूँ गर अच्छा भी न जानें मेरे शेवन को
आए है बेकसी-ए-इश्क़ पे रोना 'ग़ालिब'
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
कह सके कौन कि ये जल्वागरी किस की है
ना-कर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
न होगा यक-बयाबाँ माँदगी से ज़ौक़ कम मेरा
ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
पी जिस क़दर मिले शब-ए-महताब में शराब
कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया
ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के