बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं 'ग़ालिब'
कुछ तो है जिस की पर्दा-दारी है
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हरीफ़-ए-मतलब-ए-मुश्किल नहीं फ़ुसून-ए-नियाज़
रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
लब-ए-ईसा की जुम्बिश करती है गहवारा-जम्बानी
यूसुफ़ उस को कहो और कुछ न कहे ख़ैर हुई
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी
समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
वफ़ा-दारी ब-शर्त-ए-उस्तुवारी अस्ल ईमाँ है
हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार
अगले वक़्तों के हैं ये लोग इन्हें कुछ न कहो
बना कर फ़क़ीरों का हम भेस 'ग़ालिब'