बे-इश्क़ उम्र कट नहीं सकती है और याँ
ताक़त ब-क़दर-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार भी नहीं
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मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा
बर्शिकाल-ए-गिर्या-ए-आशिक़ है देखा चाहिए
जुनूँ तोहमत-कश-ए-तस्कीं न हो गर शादमानी की
हुजूम-ए-ग़म से याँ तक सर-निगूनी मुझ को हासिल है
हर-चंद हो मुशाहिदा-ए-हक़ की गुफ़्तुगू
किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो
बोसा देते नहीं और दिल पे है हर लहज़ा निगाह
फिर इस अंदाज़ से बहार आई
ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
गर ख़ामुशी से फ़ाएदा इख़्फ़ा-ए-हाल है
सादगी पर उस की मर जाने की हसरत दिल में है