बे-दर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिए
कोई हम-साया न हो और पासबाँ कोई न हो
Gulzar
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सितम-कश मस्लहत से हूँ कि ख़ूबाँ तुझ पे आशिक़ हैं
वुसअत-ए-सई-ए-करम देख कि सर-ता-सर-ए-ख़ाक
रफ़्तार-ए-उम्र क़त-ए-रह-ए-इज़्तिराब है
कहते हैं जीते हैं उम्मीद पे लोग
दिल-ए-हर-क़तरा है साज़-ए-अनल-बहर
ग़म-ए-दुनिया से गर पाई भी फ़ुर्सत सर उठाने की
पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर ना-हक़
जान दी दी हुई उसी की थी
और बाज़ार से ले आए अगर टूट गया
हुजूम-ए-ग़म से याँ तक सर-निगूनी मुझ को हासिल है
बला से हैं जो ये पेश-ए-नज़र दर-ओ-दीवार
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का