बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना
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एक हंगामे पे मौक़ूफ़ है घर की रौनक़
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
हाँ ऐ फ़लक-ए-पीर जवाँ था अभी आरिफ़
क़तरा अपना भी हक़ीक़त में है दरिया लेकिन
सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का
कोई दिन गर ज़िंदगानी और है
शाहिद-ए-हस्ती-ए-मुतलक़ की कमर है आलम
तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो
सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी
नींद उस की है दिमाग़ उस का है रातें उस की हैं
क्या तंग हम सितम-ज़दगाँ का जहान है