बार-हा देखी हैं उन की रंजिशें
पर कुछ अब के सरगिरानी और है
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ज़हर मिलता ही नहीं मुझ को सितमगर वर्ना
ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद
देखिए लाती है उस शोख़ की नख़वत क्या रंग
इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई
होगा कोई ऐसा भी कि 'ग़ालिब' को न जाने
गिरनी थी हम पे बर्क़-ए-तजल्ली न तूर पर
बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या कुछ
न सताइश की तमन्ना न सिले की परवा
तू दोस्त किसू का भी सितमगर न हुआ था
हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं