बंदगी में भी वो आज़ादा ओ ख़ुद-बीं हैं कि हम
उल्टे फिर आए दर-ए-काबा अगर वा न हुआ
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सितम-कश मस्लहत से हूँ कि ख़ूबाँ तुझ पे आशिक़ हैं
घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले
ख़ुदाया जज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
ए'तिबार-ए-इश्क़ की ख़ाना-ख़राबी देखना
लो हम मरीज़-ए-इश्क़ के बीमार-दार हैं
मैं और बज़्म-ए-मय से यूँ तिश्ना-काम आऊँ
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जाँ-सिताँ नावक-ए-नाज़ बे-पनाह