बहुत दिनों में तग़ाफ़ुल ने तेरे पैदा की
वो इक निगह कि ब-ज़ाहिर निगाह से कम है
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जुनूँ की दस्त-गीरी किस से हो गर हो न उर्यानी
यक-ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बे-कार बाग़ का
गुलशन में बंदोबस्त ब-रंग-ए-दिगर है आज
फिर देखिए अंदाज़-ए-गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
दोनों जहान दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
मैं ने जुनूँ से की जो 'असद' इल्तिमास-ए-रंग
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
तुझ से क़िस्मत में मिरी सूरत-ए-क़ुफ़्ल-ए-अबजद
या रब हमें तो ख़्वाब में भी मत दिखाइयो
नज़्ज़ारे ने भी काम किया वाँ नक़ाब का